गनगौर व्रत /कथा/विधि / Gangaur Vrat

यह व्रत चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है। इस दिन सौभाग्यशाली स्त्रियां व्रत रखती हैं। किंवदंती है कि इसी दिन भगवान शंकर ने अपनी अर्द्धांगिनी पार्वती को तथा पार्वती ने अन्य स्त्रियों को सौभाग्यवती रहने का वरदान दिया था।

इस दिन पूजन के समय रेणुका की गौर बनाकर उस पर महावर, सिंदूर और चूड़ी चढ़ाने का विशेष प्रावधान है। चंदन, अक्षत, धूपबत्ती, दीप, नैवेद्य से पूजन करके भोग लगाया जाता है। विवाहित स्त्रियों को गौर पर चढ़ाए सिंदूर से अपनी मांग की भरना चाहिए। गनगौर का प्रसाद पुरुषों के लिए निषिद्ध है।

कथा : एक समय की बात है, भगवान शंकर, पार्वती एवं नारद के साथ भ्रमण हेतु चल दिए। वे चलते-चलते चैत्र शुक्ल तृतीया को एक गांव में पहुंचे। उनका आना सुनकर ग्राम की निर्धन स्त्रियां उनके स्वागत के लिए थालियों में हल्दी व अक्षत लेकर पूजन हेतु तुरंत पहुंच गई। पार्वतीजी ने उनके पूजा भार को समझकर सारा सुहाग रस उन पर छिड़क दिया। वे अटल सुहाग प्राप्त कर लौटीं । थोड़ी देर बाद धनी वर्ग की स्त्रियां अनेक प्रकार के पकवान सोने-चांदी के थालों में सजाकर सोलह श्रृंगार करके शिव और पार्वती के सामने पहुंचीं। इन स्त्रियों को देखकर भगवान शंकर ने पार्वती से कहा, “तुमने सारा सुहाग रस तो निर्धन वर्ग की स्त्रियों को ही दिया। अब इन्हें क्या दोगी ?”

पार्वती जी बोलीं, ‘प्राणनाथ! उन स्त्रियों को ऊपरी पदार्थों से निर्मित रस दिया गया है। इसलिए उनका सुहाग धोती से रहेगा। किंतु मैं इन धनी वर्ग की स्त्रियों को अपनी अंगुली चीरकर रक्त का सुहाग रस दूंगी, इससे वो मेरे समान सौभाग्यवती हो जाएंगी।” जब इन स्त्रियों ने शिव-पार्वती पूजन समाप्त कर लिया तब पार्वतीजी ने अपनी अंगुली चीरकर उसके रक्त को उनके ऊपर छिड़क दिया। जिस पर जैसे छींटे पड़े उसने वैसा ही सुहाग पा लिया। पार्वती ने कहा, “तुम सब वस्त्राभूषणों का परित्याग कर, माया मोह से रहित होओ और तन, मन, धन से पति की सेवा करो। तुम्हें अखंड सौभाग्य की प्राप्ति होगी।”

इसके बाद पार्वती जी अपने पति भगवान शंकर से आज्ञा लेकर नदी में स्नान करने चली गई। स्नान करने के पश्चात बालू की शिवजी की मूर्ति बनाकर उन्होंने पूजन किया। भोग लगाया तथा प्रदक्षिणा करके दो कणों का प्रसाद ग्रहण कर मस्तक पर टीका लगाया। उसी समय उस पार्थिव लिंग से शिवजी प्रकट हुए तथा पार्वती को वरदान दिया, “आज के दिन जो स्त्री मेरा पूजन और तुम्हारा व्रत करेगी उसका पति चिरंजीवी रहेगा तथा मोक्ष को प्राप्त होगा।” भगवान शिव यह वरदान देकर अंतर्धान हो गए।

इतना सब करते-करते पार्वती जी को काफी समय लग गया। पार्वती जी नदी के तट से चलकर उस स्थान पर आईं जहां पर भगवान शंकर व नारदजी को छोड़कर गई थीं। शिवजी ने विलंब से आने का कारण पूछा तो इस पर पार्वती जी बोली, ” मेरे भाई-भावज नदी किनारे मिल गए थे। उन्होंने मुझसे दूध-भात खाने तथा ठहरने का आग्रह किया। इसी कारण से आने में मुझे विलंब हो गया।” ऐसा जानकर अंतर्यामी भगवान शंकर भी दूध-भात खाने के लालच में नदी तट की ओर चल दिए। पार्वती जी ने मौन भाव से भगवान शिवजी का ही ध्यान करके प्रार्थना की, “भगवान आप अपनी इस अनन्य दासी की लाज रखिए।” प्रार्थना करती हुई पार्वती जी उनके पीछे-पीछे चलने लगीं। उन्हें दूर नदी तट पर माया का महल दिखाई दिया। वहां महल के अंदर शिवजी के साले तथा सलहज ने शिव-पार्वती का स्वागत किया। उन्होंने उनका आथित्य ग्रहण किया।

वे दो दिन वहां रहे। तीसरे दिन पार्वती जी ने शिवजी से चलने के लिए कहा तो भगवान शिव चलने को तैयार न हुए। तब पार्वती जी रूठकर अकेली ही चल दीं। ऐसी परिस्थिति में भगवान शिव को भी पार्वती के साथ चलना पड़ा। नारद जी भी साथ चल दिए। चलते-चलते भगवान शंकर बोले, “मैं तुम्हारे मायके में अपनी माला भूल आया हूं।” माला लाने के लिए पार्वती जी तैयार हुईं तो भगवान ने पार्वती जी को न भेजकर नारद जी को भेजा। पर वहां पहुंचने पर नारद जी को कोई महल दिखाई नहीं दिया। वहां दूर-दूर तक जंगल ही जंगल था।

गहन अंधकार वहां पर छाया हुआ था। नृशंस हिंसक पशु विचरण कर रहे थे। अंधकारपूर्ण इस भयभीत कर देने वाले वातावरण को देखकर नारदजी आश्चर्य से भर उठे। सहसा विद्युत कौंधी। नारदजी को शिवजी की माला एक पेड़ पर टंगी दिखाई दी। नारदजी ने माला उतारी और शिवजी के पास पहुंचकर यात्रा की अपनी विपत्ति का आद्योपांत वर्णन कह सुनाया। शिवजी हंसकर कहने लगे, “यह सब पार्वती की ही लीला है।” अपने पार्थिव पूजन की बात वह आपसे गुप्त रखना चाहती थीं, इसलिए उन्होंने झूठा बहाना बनाया। फिर उसे सत्यासत्य करने के लिए उन्होंने अपने पति धर्म के बल से झूठे महल की रचना की, जिसकी सत्यता को उभारने के लिए मैंने माला लाने के लिए तुम्हें वहां पर भेजा था।

इस पर पार्वती जी बोली, “मैं किस योग्य हूं। यह सब तो आपकी ही कृपा है।” ऐसा जानकर महर्षि नारद जी ने माता पार्वती तथा उनके पतिव्रत प्रभाव से उत्पन्न घटना की मुक्त कंठ से प्रशंसा की।

इसके पश्चात उन्होंने माता पार्वती तथा शिवजी से पतिव्रत प्रभाव से उत्पन्न घटना को ध्यान में रखकर कहा, “मेरा यह आशीर्वचन है कि जो स्त्रियां इस दिन गुप्त रूप से पति के निमित्त पूजन कार्य संपादित करेंगी, आपकी महती कृपा से उनकी समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति होगी तथा उनके पति भी चिरंजीव होंगे।” यह कहने के उपरांत नारद जी उन्हें प्रणाम करके देवलोक को चले गए। प्रसन्न मुद्रा में शिव-पार्वती ने भी कैलास की ओर प्रस्थान किया।

जानकी सीता जी ने भी माता पार्वती की पूजा करके मनवांछित वर प्राप्त किया था। चूंकि पार्वती जी ने यह व्रत छिपाकर किया था, अतः उसी परंपरा के अनुसार आज भी स्त्रियां इसे छिपकर ही करती हैं और पूजन के अवसर पर पुरुष कभी उपस्थित नहीं रहते।

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