विशालतम प्रदेश के राजाजी अपने महल में दुग्ध-धवल, पुष्प-सुकोमल शय्या पर सोये हुए थे। सपने में उन्होंने देखा कि उनके शत्रुओं ने उनके राज्य पर चढ़ाई कर दी है और उनका राज्य कोष सब छीन लिया है। अपनी जान बचाकर राजाजी भागे।
भूख-प्यास से बेहाल होकर एक अनक्षेत्र में गए जहाँ पर अब समाप्त हो चुका था। अज्ञक्षेत्र के संचालक ने दयावश उन्हें बर्तन से खुरचन निकालकर दी जिसमें से जलने की गन्ध आ रही थी। भूख से व्याकुल व्यक्ति को भोजन की पवित्रता और स्वाद नहीं दिखते सो राजाजी को यह खुरचन भी वरदान सी लगी और उन्होंने अपने दोनों हाथ फैला दिए।
किन्तु यह क्या ? हाथ में खुरचन के आते ही एक चील ने झपट्टा मारा और खुरचन बगल की गन्दी नाली में जा गिरी। भूख से बेहाल राजा चिल्ला पड़ा ।
राजाजी नींद में सचमुच चिल्ला पड़े थे। उनके चिल्लाते ही रानियों, सेवकादि दौड़ पड़े। राजाजी ने भी देखा मणिखचित भवन में स्वर्णमण्डित वेदीपर उनकी शय्या है और उनके आगे-पीछे सेवकों की लम्बी कतार है। राजा के मुख से निकला यह सच है कि वह सच ? अब राजा यही रहते। लोगों ने समझा, राजाजी पागल हो गए हैं। सद्गुरु आए उन्होंने ध्यानकर सारी कहानी जान ली और राजाजी से पूछा ।
जब आप के हाथ में जली खुरचन थी और आप भूख से बेहाल थे तो क्या यह नौकर-चाकर थे ? राजाजी ने नहीं कहा। गुरुजी ने पूछा- अब जबकि आप राजमहल में हैं तो वह भूखभरी स्थिति है ? राजाजी ने इस पर भी न ही कहा। तो गुरुजी ने कहा- राजन् !
जो एक काल में रहे पर दूसरे काल में बाधित हो जाय वह सच नहीं होता। न तो यह सच है और न ही वह सच है। सच है तो यही कि आप दोनों जगह थे।