solah somvar fast

        कथा : विदर्भ देश के अंतर्गत अमरावती नाम की अतीव रमणीक नगरी अमरपुरी में वहां के महाराज ने शिवजी का एक सुवर्ण का सुंदर मंदिर बनवाया था। उस मंदिर में भगवान शंकर भगवती पार्वती के साथ सदा निवास करते थे।उस मंदिर का पुजारी बड़ी नीच प्रकृति का था। मंदिर में जो शिव भक्त, भगवान शंकर और भगवती पार्वती के दर्शनों के निमित्त आते थे, उन्हें वह नशीली वस्तुएं खिला और पिलाकर लूट लेता था। इस प्रकार वह रात-दिन पाप में डूबा रहता था। 

 एक दिन शिव और पार्वती घूमते हुए उस मंदिर के निकट आए। पार्वती ने जब पुजारी की धूर्तता देखी, तो उन्होंने उसे कोढ़ी हो जाने का श्राप दे दिया। श्राप के प्रभाव से पुजारी तत्काल कोढ़ी हो गया। अपनी यह दशा देखकर वह बहुत दुखी हुआ। इस रोग के कारण वह पुजारी अनेक प्रकार से दुखी रहने लगा। इस प्रकार के कष्ट भोगते हुए उसे बहुत दिन हो गए। दैवयोग से देवलोक की कुछ अप्सराएं शिवजी की पूजा करने उसी मंदिर में पधारी और पुजारी के कष्ट को देख बड़े दयाभाव से उससे रोगी होने का कारण पूछने लगीं- पुजारी ने निःसंकोच सब बातें उनसे कह दीं। वे अप्सराएं बोलीं- हे पुजारी! अब ‘तुम अधिक दुखी मत होना। भगवान शिवजी तुम्हारे कष्ट को दूर कर देंगे।

तुम सब बातों में श्रेष्ठ षोडश सोमवार का व्रत भक्तिभाव से करो। तब पुजारी अप्सराओं से हाथ जोड़कर विनम्र भाव से षोडश सोमवार व्रत की विधि पूछने लगा। अप्सराएं बोलीं- जिस दिन सोमवार हो, उस दिन भक्ति के साथ व्रत करें। स्वच्छ वस्त्र पहनें, आधा सेर गेहूं का आटा लें। उसके तीन अंग बनाएं और घी, गुड़, दीप, नैवेद्य, पुंगीफल, बेलपत्र, जनेऊ का जोड़ा, चंदन, अक्षत, पुष्पादि के द्वारा प्रदोष काल में भगवान शंकर का विधि से पूजन करें। तत्पश्चात तीनों अंगों में से एक शिवजी को अर्पण करें और शेष दो को शिवजी का प्रसाद जानकर समस्त उपस्थित जनों में बांट दें और स्वयं भी प्रसाद ग्रहण करें। इस विधि से सोलह सोमवार व्रत करें। तत्पश्चात सत्रहवें सोमवार के दिन पाव सेर पवित्र गेहूं के आटे की बाटी बनाएं। तदनुसार घी और गुड़ मिलाकर चूरमा बनाएं और शिवजी को भोग लगाकर उपस्थित भक्तों में बांटें। पीछे आप सकुटुंब प्रसाद लें तो भगवान शिवजी की कृपा से सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। ऐसा कहकर अप्सराएं स्वर्ग को चली गई। ने यथाविधि षोडश सोमवार व्रत किया तथा भगवान शिवजी की कृपा से रोग मुक्त होकर आनंद से रहने लगा।

कुछ दिन बाद जब फिर शिवजी और पार्वती उस मंदिर में पधारे, तब ब्राह्मण को नीरोग देखकर पार्वती ने ब्राह्मण से रोग मुक्त होने का कारण पूछा तो ब्राह्मण ने सोलह सोमवार व्रत कथा कह सुनाई। तब तो पार्वती जी अति प्रसन्न होकर ब्राह्मण से व्रत की विधि पूछकर व्रत करने को तैयार हुई। व्रत करने के बाद उनकी मनोकामना पूर्ण हुई तथा उनके रूठे पुत्र स्वामी कार्तिकेय स्वयं माता के आज्ञाकारी हुए, किंतु कार्तिकेय जी को अपने विचार परिवर्तन का रहस्य जानने की इच्छा हुई और माता से बोले – ‘माताजी! आपने ऐसा कौन-सा उपाय किया, जिससे मेरा मन आपकी ओर आकर्षित हुआ।’ तब पार्वती जी ने वही षोडश सोमवार व्रत कथा उनको सुनाई। तब कार्तिकेय जी बोले कि इस व्रत को मैं भी करूंगा, क्योंकि मेरा प्रियमित्र ब्राह्मण दुखी हृदय से परदेश गया है। हमें उससे मिलने की बहुत अभिलाषा है। कार्तिकेय जी ने भी इस व्रत को किया और उनका प्रिय मित्र मिल गया। मित्र ने इस आकस्मिक मिलन का भेद कार्तिकेय जी से पूछा तो वे बोले हे मित्र ! हमने तुम्हारे मिलने की इच्छा करके सोलह सोमवार का व्रत किया था।

अब तो ब्राह्मण मित्र को भी अपने विवाह की बड़ी इच्छा हुई। उन्होंने कार्तिकेय जी से व्रत की विधि पूछी और यथाविधि व्रत किया। व्रत के प्रभाव से जब वह किसी कार्यवश विदेश गया तो वहां के राजा की लड़की का स्वयंवर था। राजा ने प्रण किया था कि जिस राजकुमार के गले में सब प्रकार शृङ्गारित हथिनी माला डालेगी मैं उसी के साथ अपनी प्रिय पुत्री का विवाह कर दूंगा। शिवजी की कृपा से ब्राह्मण भी स्वयंवर देखने की इच्छा से राजसभा में एक ओर बैठ गया। नियत समय पर हथिनी आई और उसने जयमाला उस ब्राह्मण के गले में डाल दी। राजा ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार बड़ी धूमधाम से कन्या का विवाह उस ब्राह्मण के साथ कर दिया और ब्राह्मण को बहुत-सा धन और सम्मान देकर संतुष्ट किया। ब्राह्मण सुंदर राजकन्या पाकर सुख से जीवन व्यतीत करने लगा।

एक दिन राजकन्या ने अपने पति से प्रश्न किया। है प्राणनाथ! आपने ऐसा कौन-सा भारी पुण्य किया, जिसके प्रताप से हथिनी ने सब राजकुमारों को छोड़कर आपको वरण किया? ब्राह्मण बोला—हे प्राणप्रिये! मैंने अपने मित्र कार्तिकेय जी के कथनानुसार सोलह सोमवार का व्रत किया था जिसके प्रभाव से मुझे तुम जैसी स्वरूपवान भार्या की प्राप्ति हुई। व्रत की महिमा को सुनकर राजकन्या को बड़ा आश्चर्य हुआ और वह भी पुत्र की कामना करके व्रत करने लगी। शिवजी की दया से उसके गर्भ से एक अति सुंदर, सुशील, धर्मात्मा और विद्वान पुत्र उत्पन्न हुआ। माता-पिता दोनों उस देव पुत्र को पाकर अति प्रसन्न हुए और उसका लालन-पालन भली प्रकार से करने लगे।

जब पुत्र समझदार हुआ तो एक दिन उसने अपनी माता से प्रश्न किया कि मां तूने कौन-सा तप किया है, जो मेरे जैसा पुत्र तेरे गर्भ से उत्पन्न हुआ। माता ने पुत्र का प्रबल मनोरथ जानकर अपने किए हुए सोलह सोमवार व्रत को विधि सहित पुत्र के सम्मुख प्रकट किया। पुत्र ने सब प्रकार के मनोरथ पूर्ण करने वाले ऐसे सरल व्रत के बारे में सुना तो वह भी इस व्रत को राज्याधिकार पाने की इच्छा से हर सोमवार को यथाविधि व्रत करने लगा। उसी समय एक देश के वृद्ध राजा के दूतों ने आकर उसको एक राजकन्या के लिए वरण किया। राजा ने अपनी पुत्री का विवाह ऐसे सर्वगुण संपन्न ब्राह्मण युवक के साथ करके बड़ा सुख प्राप्त किया।

वृद्ध राजा के दिवंगत हो जाने पर यही ब्राह्मण बालक राजगद्दी पर बिठाया गया, क्योंकि दिवंगत भूप के कोई पुत्र नहीं था। राज्य का अधिकारी होकर भी वह ब्राह्मण पुत्र अपने सोलह सोमवार के व्रत को करता रहा। जब सत्रहवां सोमवार आया तो विप्र पुत्र ने अपनी प्रियतमा से सब पूजन सामग्री लेकर शिवालय में चलने के लिए कहा। किंतु प्रियतमा ने उसकी आज्ञा की चिंता नहीं की। दास-दासियों द्वारा सब सामग्रियां शिवालय भिजवा दीं और आप नहीं गई। जब राजा ने शिवजी का पूजन समाप्त किया, तब एक आकाशवाणी राजा के प्रति हुई। राजा ने सुना कि हे राजा! अपनी इस रानी को राजमहल से निकाल दे, नहीं तो वह तेरा सर्वनाश कर देगी।

आकाशवाणी को सुनकर राजा के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा और तत्काल ही मंत्रणागृह में आकर अपने सभासदों को बुलाकर पूछने लगा कि हे मंत्रियो ! मुझे आज शिवजी की वाणी हुई है कि राजा तू अपनी इस रानी को निकाल दे नहीं तो ये तेरा सर्वनाश कर ढेगी। मंत्री आदि सब बड़े विस्मय और दुख में डूब गए क्योंकि जिस कन्या के साथ राज्य मिला है, राजा उसी को निकालने का जाल रचता है, यह कैसे हो सकेगा ? अंत में राजा ने उसे अपने यहां से निकाल दिया। रानी दुखी हृदय भाग्य को कोसती हुई नगर के बाहर चली गई। बिना पदत्राण, फटे वस्त्र पहने, भूख से दुखी धीरे-धीरे चलकर वह एक नगर में पहुंची।

वहां एक बुढ़िया सूत कातकर बेचने को जाती थी। रानी की करुण दशा देख बोली- चल तू मेरा सूत बिकवा दे। मैं वृद्ध हूं, भाव नहीं जानती हूं। बुढ़िया की ऐसी बात सुन रानी ने बुढ़िया के सिर से सूत की गठरी उतार कर अपने सिर पर रख ली। थोड़ी देर बाद आंधी आई और बुढ़िया का सूत पोटली के सहित उड़ गया। बेचारी बुढ़िया पछताती रह गई और रानी को अपने साथ से दूर रहने को कह दिया। अब रानी एक तेली के घर गई, तो तेली के सब मटके शिवजी के प्रकोप के कारण चटक गए। ऐसी दशा देख तेली ने रानी को अपने घर से निकाल दिया। इस प्रकार रानी अत्यंत दुख पाती हुई सरिता के तट पर गई तो सरिता का समस्त जल सूख गया। तत्पश्चात रानी एक वन में गई, वहां जाकर सरोवर में सीढ़ी से उतर पानी पीने को गई।

उसके हाथ से जल स्पर्श होते ही सरोवर का नीलकमल के सदृश्य जल असंख्य कीड़ों से युक्त एवं गंदा हो गया। रानी भाग्य पर दोषारोपण करते हुए उस जल का पान करके एक वृक्ष की शीतल छाया में विश्राम करने लगी। वह रानी जिस वृक्ष के नीचे बैठी थी, उस वृक्ष के पत्ते तत्काल ही गिरने लगे। वन तथा सरोवर के जल की ऐसी दशा देखकर गौ चराते ग्वालों ने अपने गुंसाई जी से, जो उस वन में स्थित मंदिर में पुजारी थे, सारी बातें कहीं। गुंसाई जी के आदेशानुसार ग्वाले रानी को पकड़कर गुंसाई के पास ले आए। रानी की मुख कांति और शरीर शोभा देख गुंसाई जी जान गए, यह अवश्य ही विधि की गति की मारी कोई कुलीन अबला है। ऐसा सोच पुजारी जी ने रानी के प्रति कहा कि पुत्री मैं तुमको पुत्री के समान रखूंगा। तुम मेरे आश्रम में ही रहो। मैं तुमको किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने दूंगा। गुंसाईं के ऐसे वचन सुन रानी को धीरज हुआ और आश्रम में रहने लगी।

आश्रम में रानी जो भोजन बनाती उसमें कीड़े पड़ जाते, जल को स्पर्श करती तो उसमें भी कीड़े पड़ जाते। अब तो गुंसाई जी भी दुखी हुए और रानी से बोले कि हे बेटी! तेरे पर कौन से देवता का कोप हैं, जिससे तेरी ऐसी दशा है ? गुंसाई जी की बात सुन रानी ने बताया कि मैंने पति की आज्ञा का उल्लंघन करके नौकर के हाथ पूजा की सामग्री मंदिर भिजवाई थी। तब शिवजी महाराज की अनेक प्रकार से स्तुति करते हुए गुंसाई जी रानी से बोले – हे पुत्री ! तुम सब मनोरथों के पूर्ण करने वाले सोलह सोमवार के व्रत को करो। उसके प्रभाव से इस कष्ट से मुक्त हो सकोगी। गुंसाई की बात सुनकर रानी ने सोलह सोमवार व्रत को विधिवत संपन्न किया और सत्रहवें सोमवार को पूजन के प्रभाव से राजा के हृदय में विचार उत्पन्न हुआ कि रानी को गए बहुत समय व्यतीत हो गया। न जाने कहां-कहां भटकती उसे ढूंढना चाहिए।

यह सोच उसने रानी को तलाश करने चारों दिशाओं में अपने दूत भेजे। वे तलाश करते हुए गुसाईं जी के आश्रम में सनी को पाकर पुजारी से रानी को मांगने लगे, किंतु गुंसाई ने उनसे मना कर दिया। वे दूत चुपचाप लौट गए और आकर महाराज के सन्मुख रानी के पता लग जाने के बारे में बतलाने लगे। रानी का पता पाकर राजा स्वयं पुजारी के आश्रम में गए। और पुजारी से प्रार्थना करने लगे कि महाराज! जो देवी आपके आश्रम में रहती है, वह मेरी पत्नी है। शिवजी के कोप से मैंने उसको त्याग दिया था। अब इस पर से शिव का प्रकोप शांत हो गया है। इसलिए मैं इसे ले जाने के लिए आपके पास आया हूं। आप इसे मेरे साथ चलने की आज्ञा दे दीजिए।

गुंसाईं जी ने राजा के वचन को सत्य समझकर रानी को राजा के साथ जाने की आज्ञा दे दी। गुंसाई की आज्ञा पाकर रानी प्रसन्न होकर राजा के साथ उसके राज्य की ओर लौटने लगी। उस समय नगर में अनेक प्रकार के बाजे बजने लगे। निवासियों ने नगर के दरवाजे पर तोरण बंदनवारों से विविध- विधि से नगर सजाया। घर-घर में मंगल गीत होने लगे। पंडितों ने विविध वेद मंत्रों का उच्चारण करके अपनी राजरानी का आह्वान किया। इस प्रकार रानी ने पुनः अपनी राजधानी में प्रवेश किया। महाराज ने अनेक तरह से ब्राह्मणों को दान आदि देकर प्रसन्न एवं संतुष्ट किया।

याचकों को बहुत सा धन-धान्य दिया। नगरी में स्थान- स्थान पर सदाव्रत खुलवाए, जहां भूखों को खाने को मिलता था। इस प्रकार से राजा शिवजी की कृपा का पात्र हो राजधानी में रानी के साथ अनेक तरह के सुखों का भोग करता हुआ सोमवार के व्रत करने लगा। विधिवत शिव पूजन करते हुए वे इस लोक में अनेकानेक सुखों को भोगने के पश्चात शिवपुरी को पधारे। ऐसे ही जो मनुष्य मनसा वाचा कर्मणा द्वारा भक्ति सहित का व्रत एवं पूजन इत्यादि विधिवत करता है वह इस लोक में समस्त सुखों को भोगकर अंत में शिवपुरी को प्राप्त होता है। यह व्रत सब मनोरथों को पूर्ण करने वाला है। इस व्रत को करने से वह सबकुछ सहज ही प्राप्त होता जाता है, जिसकी कामना करता है।

 

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